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व्यर्थ की आशा sentence in Hindi

pronunciation: [ veyreth ki aashaa ]
"व्यर्थ की आशा" meaning in English
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  • किंतु कैसे व्यर्थ की आशा लिए, यह योग साधूँ!
  • किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
  • व्यर्थ की आशा रखने से कोई फायदा नहीं होने वाला।
  • मैं जो आशा करता हूँ कि स्मृतियों से छुटकारा पाऊँगा, यह व्यर्थ की आशा है।
  • आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
  • इसलिए जब तुमने यह व्यर्थ की आशा बांधी कि दूसरे के साथ तुम कुछ कर रहे हो, दूसरे को सता रहे हो, दूसरे को मिटा रहे हो, तब तुमने अनजाने अपने को ही मिटाया।
  • जो इस बात को नहीं जानता और नारे लगा रहा है, वह सत्य को न जानकर व्यर्थ की आशा में जीवन गंवा रहा है और जो किसी समुदाय के विरूद्ध भड़काऊ नारे लगा रहा है, वह भी आतंकवाद की बुनियादों को ही मज़बूत कर रहा है।
  • आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
  • जो इस बात को नहीं जानता और नारे लगा रहा है, वह सत्य को न जानकर व्यर्थ की आशा में जीवन गंवा रहा है और जो किसी समुदाय के विरूद्ध भड़काऊ नारे लगा रहा है, वह भी आतंकवाद की बुनियादों को ही मज़बूत कर रहा है।
  • -हरिवंशराय बच्चन आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
  • दूसरे, स्वः पं ० नरेन्द्र शर्मा की इन पंक्तियों को पढ़ कर हृदय विह्वल हो उठा: ‘ सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? …..
  • -मैं अपने लेख में पूज्य नरेन्द्र शर्मा जी की निम्न पंक्तियों की बात कर रहा था किंतु ' कादम्बिनी' के संपादक ने यह पंक्तियां ना जाने किस कारण से नहीं छापीः ‘सत्य हो यदि,कल्प की भी कल्पना कर,धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये,यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?'
  • -मैं अपने लेख में पूज्य नरेन्द्र शर्मा जी की निम्न पंक्तियों की बात कर रहा था किंतु ' कादम्बिनी' के संपादक ने यह पंक्तियां ना जाने किस कारण से नहीं छापीः 'सत्य हो यदि,कल्प की भी कल्पना कर,धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये,यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?'

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